2. रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्ि'। काव्य को पढ़ने या
सुनने से ब्िस आनन्ि की अनुभूति होिी है, उसे 'रस'
कहा िािा है।
पाठक या श्रोिा के हृिय में ब्थर्ि थर्ायीभाव ही
ववभावादि से संयुक्ि होकर रस के रूप में पररणि हो
िािा है।
रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण ित्व' माना िािा
है।
3.
4. शृंग ार रस को रसराि या रसपति कहा गया है। मख्ुयि: सयंोग िर्ा
ववप्रलंभ या ववयोग के नाम से िो भागों में ववभाब्िि ककया िािा है,
ककंिु धनंिय आदि कुछ ववद्वान ्ववप्रलभं के पूवाथनुराग भेि को
संयोग-ववप्रलंभ-ववरदहि पूवाथवथर्ा मानकर अयोग की संज्ञा िेिे हैं िर्ा
शेष ववप्रयोग िर्ा संभोग नाम से िो भेि और करिे हैं। संयोग की
अनेक पररब्थर्तियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल
आश्रय भेि से नायकारदध, नातयकारदध अर्वा उभयारदध, प्रकाशन के
ववचार से प्रच्छन्न िर्ा प्रकाश या थपष्ट और गुप्ि िर्ा
प्रकाशनप्रकार के ववचार से संक्षिप्ि, संकीणथ, संपन्निर िर्ा
समृद्धधमान नामक भेि ककए िािे हैं िर्ा ववप्रलंभ के पूवाथनुराग या
अभभलाषहेिुक, मान या ईश्र्याहेिुक, प्रवास, ववरह िर्ा करुण वप्रलंभ
नामक भेि ककए गए हैं। शंगृार रस के अिंगिथ
नातयकालंकार, ऋिु िर्ा प्रकृति का भी वणथन ककया िािा है।
5. उदाहरण
संयोग शंगृार
बिरस लालच लाल की, मुरली धरर लुकाय।
सौंह करे, भौंहतन हँसै, िैन कहै, नदट िाय।
-बबहारी लाल
ववयोग शंगृार (ववप्रलंभ शंगृार)
तनभसदिन बरसि नयन हमारे,
सिा रहति पावस ऋिु हम पै िब िे थयाम भसधारे॥
-सूरिास
6. 2.हास्य रस
हास्य रस का स्थायी भाव हास है।
‘साहहत्यदर्पण’ में कहा गया है -
"बागाहदवैक तैश्चेतोववकासो हास इष्यते", अथापत
वाणी, रूर् आहद के ववकारों को देखकर चचत्त का
ववकससत होना ‘हास’ कहा जाता है।
7. उदाहरण
िंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रिाप, साि भमले पंद्रह
भमनट घंटा भर आलाप।
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोिा, धीरे-धीरे
खिसक चुके र्े सारे श्रोिा। (काका हार्रसी)
8. 3. करुण रस
भरिमुतन के ‘नाट्यशाथर’ में प्रतिपादिि आठ नाट्यरसों
मेंशंगृार और हाथय के अनन्िर िर्ा रौद्र से पूव थकरुण रस की
गणना की गई है। ‘रौद्रात्तु करुणो रस:’ कहकर 'करुण रस' की उत्पवत्त
'रौद्र रस' से मानी गई है और उसका वणथ कपोि के सदृश
है िर्ा िेविा यमराि बिाये गये हैंभरि ने ही करुण रस का
ववशेष वववरण िेिे हुए उसके थर्ायी भाव का नाम ‘शोक’ दिया
हैI और उसकी उत्पवत्त शापिन्य क्लेश ववतनपाि, इष्टिन-ववप्रयोग,
ववभव नाश, वध, बन्धन, ववद्रव अर्ाथि पलायन, अपघाि, व्यसन
अर्ाथि आपवत्त आदि ववभावों के संयोग से थवीकार की है। सार् ही
करुण रस के अभभनय में अश्रुपािन, पररिेवन अर्ाथि ्ववलाप,
मुिशोषण, वैवर्णयथ, रथिागारिा, तन:श्वास, थमृतिववलोप आदि
अनुभावों के प्रयोग का तनिेश भी कहा गया है। किर तनवेि, ग्लातन,
धचन्िा, औत्सुक्य, आवेग, मोह, श्रम, भय, ववषाि, िैन्य, व्याधध,
िड़िा, उन्माि, अपथमार, रास, आलथय, मरण, थिम्भ, वेपर्ु,
वेवर्णयथ, अश्रु, थवरभेि आदि की व्यभभचारी या संचारी भाव के रूप में
पररगखणि ककया है I
10. 4. वीर रस
शगंृार के सार् थपधाथ करने वाला वीर रस है। शगंृार, रौद्र िर्ा वीभत्स के सार्
वीर को भी भरि मुतन ने मूल रसों में पररगखणि ककया है। वीर रस से
ही अिभुि रस की उत्पवत्त बिलाई गई है। वीर रस का 'वणथ' 'थवणथ' अर्वा
'गौर' िर्ा िेविा इन्द्र कहे गये हैं। यह उत्तम प्रकृति वालो से सम्बद्ध है
िर्ा इसका थर्ायी भाव ‘उत्साह’ है - ‘अर् वीरो नाम
उत्तमप्रकृतिरुत्साहत्मक:’। भानुित्त के अनुसार, पूणथिया पररथिुट ‘उत्साह’
अर्वा सम्पूणथ इब्न्द्रयों का प्रहषथ या उत्िुल्लिा वीर रस है - ‘पररपूणथ
उत्साह: सवेब्न्द्रयाणां प्रहषो वा वीर:।’
दहन्िी के आचायथ सोमनार् ने वीर रस की पररभाषा की है -
‘िब कववत्त में सुनि ही व्यंग्य होय उत्साह। िहाँ वीर रस समखियो चौबबधध के
कववनाह।’ सामान्यि: रौद्र एवं वीर रसों की पहचान में कदठनाई होिी है।
इसका कारण यह है कक िोनों के उपािान बहुधा एक - िूसरे से भमलिे-िुलिे
हैं। िोनों के आलम्बन शरु िर्ा उद्िीपन उनकी चेष्टाएँ हैं। िोनों
के व्यभभचाररयों िर्ा अनुभावों में भी सादृश्य हैं। कभी-कभी रौद्रिा में वीरत्व
िर्ा वीरिा में रौद्रवि का आभास भमलिा है। इन कारणों से कुछ ववद्वान
रौद्र का अन्िभाथव वीर में और कुछ वीर का अन्िभाथव रौद्र में करने के
अनुमोिक हैं, लेककन रौद्र रस के थर्ायी भाव क्रोध िर्ा वीर रस के थर्ायी
भाव उत्साह में अन्िर थपष्ट है।
11. उिाहरण
वीर िुम बढ़े चलो, धीर िुम बढ़े चलो।
सामने पहाड़ हो कक भसहं की िहाड़ हो।
िुम कभी रुको नहीं, िुम कभी िुको नहीं॥
(द्वाररका प्रसाि माहेश्वरी)
12. 5. रौद्र रस
काव्यगि रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूणथ थर्ान
है। भरि ने ‘नाट्यशाथर’ मेंशंगृार,
रौद्र, वीर िर्ा वीभत्स, इन चार रसों को ही
प्रधान माना है, अि: इन्हीं से अन्य रसों की
उत्पवत्त बिायी है, यर्ा-‘िेषामुत्पवत्तहेिवच्ित्वारो
रसा: शंगृारो रौद्रो वीरो वीभत्स इति’ । रौद्र
से करुण रस की उत्पवत्त बिािे हुए भरि कहिे हैं
कक ‘रौद्रथयैव च यत्कमथ स शेय: करुणो
रस:’ ।रौद्र रस का कमथ ही करुण रस का िनक
होिा हैI
13. उिाहरण
श्रीकृष्ण के सुन वचन अिुथन िोभ से िलने
लगे।
सब शील अपना भूल कर करिल युगल मलने
लगे॥
संसार िेिे अब हमारे शरु रण में मृि पड़े।
करिे हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर िड़े॥
(मैधर्लीशरण गुप्ि)
14. 6.भयानक रस
भयानक रस दहन्िी काव्य में मान्य नौ रसों में से एक
है। भानुित्त के अनुसार, ‘भय का पररपोष’ अर्वा
‘सम्पूणथ इब्न्द्रयों का वविोभ’ भयानक रस है। अर्ाथि
भयोत्पािक वथिुओं के िशथन या श्रवण से अर्वा शरु
इत्यादि के ववद्रोहपूणथ आचरण से है, िब वहाँ
भयानक रस होिा है। दहन्िी के आचायथ सोमनार् ने
‘रसपीयूषतनधध’ में भयानक रस की तनम्न पररभाषा
िी है-
‘सुतन कववत्त में व्यंधग भय िब ही परगट होय। िहीं
भयानक रस बरतन कहै सबै कवव लोय’।
15. उिाहरण
उधर गरििी भसधं ुलहररयाँ कुदटल काल के िालों सी।
चली आ रहीं िेन उगलिी िन िैलाये व्यालों - सी॥
(ियशंकर प्रसाि)
16. 7. बीभत्स रस
बीभत्स रस काव्य में मान्य नव रसों में अपना ववभशष्ट
थर्ान रििा है। इसकी ब्थर्ति ि:ुिात्मक रसों में
मानी िािी है। इस दृब्ष्ट से करुण, भयानक
िर्ा रौद्र, ये िीन रस इसके सहयोगी या सहचर
भसद्ध होिे हैं। शान्ि रस से भी इसकी तनकटिा
मान्य है, क्योंकक बहुधा बीभत्सिा का िशथन वैराग्य
की प्रेरणा िेिा है और अन्िि: शान्ि रस के थर्ायी
भाव शम का पोषण करिा है।
18. 8. अद्भुि रस
अद्भुि रस ‘ववथमयथय सम्यक्समृद्धधरद्भुि:
सवेब्न्द्रयाणां िाटथ्यं या’। अर्ाथि ववथमय की
सम्यक समृद्धध अर्वा सम्पूणथ इब्न्द्रयों की िटथर्िा
अिभुि रस है। कहने का अभभप्राय यह है कक िब
ककसी रचना में ववथमय 'थर्ायी भाव' इस प्रकार
पूणथिया प्रथिुट हो कक सम्पूणथ इब्न्द्रयाँ उससे
अभभभाववि होकर तनश्चेष्ट बन िाएँ, िब वहाँ
अद्भुि रस की तनष्पवत्त होिी है।
19. उिाहरण
अखिल भुवन चर- अचर सब, हरर मुि में लखि मािु।
चककि भई गद्गद् वचन, ववकभसि दृग पुलकािु॥
(सेनापति)
20. 9. शांि रस
शान्ि रस सादहत्य में प्रभसद्ध नौ रसों में अब्न्िम रस
माना िािा है - "शान्िोऽवप नवमो रस:।" इसका
कारण यह है कक भरिमुतन के ‘नाट्यशाथर’ में, िो
रस वववेचन का आदि स्रोि है, नाट्य रसों के रूप में
केवल आठ रसों का ही वणथन भमलिा है। शान्ि के
उस रूप में भरिमुतन ने मान्यिा प्रिान नहीं की,
ब्िस रूप मेंशंगृार, वीर आदि रसों की, और न उसके
ववभाव, अनुभाव और संचारी भावों का ही वैसा थपष्ट
तनरूपण ककया।
21. उिाहरण
मन रे िन कागि का पुिला।
लाग ैबँूि बबनभस िाय तछन में, गरब करै क्या इिना॥
(कबीर)
22. 10. वात्सल्य रस
वात्सल्य रस का थर्ायी भाव है। मािा-वपिा का अपने पुरादि पर िो नैसधगथक थनेह होिा है,
उसे ‘वात्सल्य’ कहिे हैं। मैकडुगल आदि मनथित्त्ववविों ने वात्सल्य को प्रधान, मौभलक भावों
में पररगखणि ककया है, व्यावहाररक अनुभव भी यह बिािा है कक अपत्य-थनेह िाम्पत्य रस से
र्ोड़ी ही कम प्रभववष्णुिावाला मनोभाव है।
संथकृि के प्राचीन आचायों ने िेवादिववषयक रति को केवल ‘भाव’ ठहराया है िर्ा वात्सल्य
को इसी प्रकार की ‘रति’ माना है, िो थर्ायी भाव के िुल्य, उनकी दृब्ष्ट में चवणीय नहीं है
सोमेश्वर भब्क्ि एवं वात्सल्य को ‘रति’ के ही ववशेष रूप मानिे हैं - ‘थनेहो
भब्क्िवाथत्सल्यभमति रिेरेव ववशेष:’, लेककन अपत्य-थनेह की उत्कटिा, आथवािनीयिा,
पुरुषार्ोपयोधगिा इत्यादि गुणों पर ववचार करने से प्रिीि होिा है कक वात्सल्य एक थविंर
प्रधान भाव है, िो थर्ायी ही समिा िाना चादहए।
भोि इत्यादि कतिपय आचायों ने इसकी सत्ता का प्राधान्य थवीकार ककया है।
ववश्वनार् ने प्रथिुट चमत्कार के कारण वत्सल रस का थविंर अब्थित्व तनरूवपि कर
‘वत्सलिा-थनेह’ को इसका थर्ायी भाव थपष्ट रूप से माना है - ‘थर्ायी वत्सलिा-थनेह:
पुरार्ालम्बनं मिम’्।
हषथ, गवथ, आवेग, अतनष्ट की आशंका इत्यादि वात्सल्य के व्यभभचारी भाव हैं। उिाहरण -
‘चलि िेखि िसुमति सुि पावै।
ठुमुकक ठुमुकक पग धरनी रेंगि, िननी िेखि दििावै’ इसमें केवल वात्सल्य भाव व्यंब्िि है,
थर्ायी का पररथिुटन नहीं हुआ है।
24. 11. भब्क्ि रस
भरिमुतन से लेकर पब्र्णडिराि िगन्नार् िक संथकृि के ककसी
प्रमुि काव्याचायथ ने ‘भब्क्ि रस’ को रसशाथर के अन्िगथि
मान्यिा प्रिान नहीं की। ब्िन ववश्वनार् ने वाक्यं रसात्मकं
काव्यम्के भसद्धान्ि का प्रतिपािन ककया और ‘मुतन-वचन’ का
उल्लघंन करिे हुए वात्सल्य को नव रसों के समकि सांगोपांग
थर्ावपि ककया, उन्होंने भी 'भब्क्ि' को रस नहीं माना। भब्क्ि
रस की भसद्धध का वाथिववक स्रोि काव्यशाथर न होकर
भब्क्िशाथर है, ब्िसमें मुख्यिया ‘गीिा’, ‘भागवि’, ‘शाब्र्णडल्य
भब्क्िसूर’, ‘नारि भब्क्िसूर’, ‘भब्क्ि रसायन’ िर्ा
‘हररभब्क्िरसामृिभसन्धु’ प्रभूति ग्रन्र्ों की गणना की िा सकिी
है।
25. उिाहरण
राम िपु, राम िपु, राम
िपु बावरे।
घोर भव नीर- तनधध,
नाम तनि नाव रे॥
27. 1. मीरा बाई
मीराबाई कृष्ण-भब्क्ि शािा की प्रमुि कवतयरी हैं। उनका
िन्म १५०४ ईथवी मेंिोधपुर के पास मेड्िा ग्राम मे हुआ र्ा
कुड्की में मीरा बाई का नतनहाल र्ा। उनके वपिा का नाम
रत्नभसहं र्ा। उनके पति कंुवर भोिराि उियपुर केमहाराणा
सांगा के पुर र्े। वववाह के कुछ समय बाि ही उनके पति का
िेहान्ि हो गया। पति की मृत्यु के बाि उन्हे पति के सार्
सिी करने का प्रयास ककया गया ककन्िु मीरां इसके भलए
िैयार नही हुई | वे संसार की ओर से ववरक्ि हो गयीं और
साधु-संिों की संगति में हररकीिथन करिे हुए अपना समय
व्यिीि करने लगीं। कुछ समय बाि उन्होंने घर का त्याग कर
दिया और िीर्ाथटन को तनकल गईं। वे बहुि दिनों
िक वृन्िावन में रहीं और किर द्वाररका चली गईं। िहाँ
संवि १५६० ईथवी में वो भगवान कृष्ण कक मूतिथ मे समा गई
। मीरा बाई ने कृष्ण-भब्क्ि के थिुट पिों की रचना की है।
28.
29. िीवन पररचय
कृष्णभब्क्ि शािा की दहंिी की महान कवतयरी हैं। उनकी कवविाओं
में थरी पराधीनिा के प्रिी एक गहरी टीस है, िो भब्क्ि के रंग में
रंग कर और गहरी हो गयी है।मीरांबाई का िन्म संवि ्1504 में
िोधपुर में कुरकी नामक गाँव में हुआ र्ा। इनका वववाह उियपुर
के महाराणा कुमार भोिराि के सार् हुआ र्ा। ये बचपन से ही
कृष्णभब्क्ि में रुधच लेने लगी र्ीं वववाह के र्ोड़े ही दिन के बाि
उनके पति का थवगथवास हो गया र्ा। पति के परलोकवास के बाि
इनकी भब्क्ि दिन- प्रतिदिन बढ़िी गई। ये मंदिरों में िाकर वहाँ
मौिूि कृष्णभक्िों के सामने कृष्णिी की मूति थके आगे नाचिी
रहिी र्ीं। मीरांबाईका कृष्णभब्क्ि में नाचना और गाना राि
पररवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को ववष
िेकर मारने की कोभशश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से
परेशान होकर वह द्वारका और वंिृावन गईं। वह िहाँ िािी र्ी,ं
वहाँ लोगों का सम्मान भमलिा र्ा। लोग आपको िेववयों के िैसा
प्यार और सम्मान िेिे र्े। इसी िौरान उन्होंने िुलसीिास को पर
भलिा र्ा :-
30. थवब्थि श्री िुलसी कुलभूषण िूषन- हरन गोसाई। बारदहं बार
प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुिाई।। घर के थविन
हमारे िेिे सबन्ह उपाधध बढ़ाई। साधु- सग अरु भिन
करि मादहं िेि कलेस महाई।। मेरे मािा- वपिा के समहौ,
हररभक्िन्ह सुििाई। हमको कहा उधचि कररबो है, सो
भलखिए समिाई।।
मीराबाई के पर का िबाव िुलसी िास ने इस प्रकार दिया:-
िाके वप्रय न राम बैिेही। सो नर िब्िए कोदट बैरी सम
िद्यवप परम सनेहा।। नािे सबै राम के मतनयि सुह्मि
सुसंख्य िहाँ लौ। अंिन कहा आँखि िो िूटे, बहुिक कहो
कहां लौ।।